सूर्य ग्रहण 25 अक्टूबर 2022
ज्यौतिषाचार्य सतीश कुमार शास्त्री 9555869444, 9210103470
श्रीसूर्य ग्रहण पर्व शास्त्रीय कथन के प्रत्यक्ष उदाहरण आधुनिक पाश्चात्य पद्धति खगोल वैज्ञानिक महत्व सम्पूर्ण जानकारी
सम्प्रति कार्तिक मास की अमावस्या (दिपावली की शाम) विक्रम सम्वत् 2079 (तदनुसार 25 अक्टूबर 2022) दिन मंगलवार को लगने वाले सूर्य ग्रहण, के विषय में विस्तृत परिचर्चा के साथ मैं ज्यौतिषाचार्य पंडित सतीश कुमार शास्त्री उपस्थित हुआ हूं
25 अक्टूबर को जो यह सूर्य ग्रहण लगेगा ऐसे अपूर्ण ग्रहण ग्रसित अस्त होने वाले ग्रहण अथवा एक ही पक्ष में दो ग्रहण आगे चन्द्रग्रहण भी है 👉🏻8 नवंबर को यह सब विशेष रूप से शास्त्रों के कथन अनुसार विशेष रूप से हानि प्रद होते हैं इनसे सावधान रहने के लिए ग्रहण काल में अन्न और वस्त्र का दान अतः किसी भी प्रकार रक्षा मंत्र के जाप करते रहना चाहिये या अन्य अनुष्ठान् करना चाहिये। 2019 में एक ही पक्ष में दो ग्रहण पड़े थे इसके बाद एक त्रासदी कोरोना महामारी फैली थी।
5 राशियों को कुछ अच्छा फल भी करेगा भाग्य में सुधार होगा ऐसा कुछ पंडित लोग कह रहे हैं-
सूर्य ग्रहण का वैज्ञानिक महत्व होने के साथ ही बहुत अधिक ज्योतिषीय और धार्मिक महत्व भी होता है। सूर्य ग्रहण का सभी राशियों पर अच्छा- खराब असर भी पड़ता ही है।
गर्भवती महिलाओं पर उनके होने वाले गर्भस्थ शिशुओं के इस प्रकार सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण से बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है यह प्रभाव तब पड़ता है जब ग्रहण काल में असावधानी बरती जाती है
हमने कई बच्चों के ग्रहण काल में घटना तथ्य जुटाने हैं 👉🏻जो शिशु गर्भ में थे उनमें किसी न किसी प्रकार के अंगों पर👉🏻 जैसे - ▫️किसी बच्चे के दिल में छेद था उसकी मां बिस्तर में सुई से धागे डाल रही थी।
▫️किसी बच्चे का जन्म से ही मंदबुद्धि पागलपन था क्योंकि चन्द्रग्रहण था देर रात उसकी मां ग्रहण काल में सो गई थी
▫️किसी बच्चे का हौंट कटा हुआ था क्योंकि सूर्य ग्रहण काल में उसकी मां चाकू से सब्जी काट रही थी तथ्यों के आधार पर ग्रहण के पड़े हुये प्रभाव के साथ उनके जन्म तिथि और समय बहुतायत संख्या में प्रमाण के लिए हमने जटा रखें हैं क्योंकि कुछ लोग अपने आप को वैज्ञानिक सिद्ध करने वाले लोग और सनातन धर्म को न मानने वाले लोग ज्योतिष शास्त्र एवं धर्म शास्त्रों के सिद्धान्तों को मानने वालों को कई बार नकारते आयें हैं
25 अक्टूबर को सूर्य ग्रहण, इन 5 राशियों का जागेगा भाग्यशाली प्रामाणिक असर सम्भव भी इस प्रकार से है-
अन्य ज्योतिषियों की गणना ऐसा कह रही है-
हमारी (आचार्य सतीश की) माने तो एक पक्ष में दो ग्रहण हों, और ग्रहण का ग्रसित अस्त होना शास्त्र सम्मत एक बहुत बुरा प्रभाव जिसको कह सकते हैं जन संघर्ष कोई बड़ी आपदा राष्ट्रव्यापी संकट कुछ भी उपस्थित हो सकता है दो ग्रहण एक साथ होने के बाद ही 6 महीने के अन्दर ही कोई बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। जैसे भूकंप आदि
सूर्य ग्रहण का वैज्ञानिक महत्व होने के साथ ही बहुत अधिक ज्योतिष और धार्मिक महत्व भी होता है। सूर्य ग्रहण का सभी राशियों पर शुभ- अशुभ असर पड़ता ही है।
25 अक्टूबर को तो यह सूर्य ग्रहण तुला राशि में लगेगा। इस साल (2022) का दूसरा सूर्य ग्रहण आंशिक (ग्रस्त अस्त) होगा।
आइये जानते हैं सूर्य ग्रहण के दिन किन राशियों के लोगों नेष्ट (खराब) फल कुछ श्रेष्ठ (अच्छा) होना सम्भव है...
मेष राशि को
मध्यम अच्छा न खराब
वृष राशि को
श्रेष्ठ
मिथुन राशि को
नेष्ट यानी बुरा फल
कर्क राशि को
नेष्ट यानी बुरा फल
सिंह राशि को
श्रेष्ठ
कन्या राशि को
मध्यम अच्छा न खराब
तुला राशि
पर तो ग्रहण ही पड़ रहा है यह तो काफी खराब पूरी तरह से नष्ट तुला राशि में एक साथ सूर्य चंद्र और केतु है इसी कारण से ग्रहण पड़ रहा है
वृश्चिक राशि को
भी इसका प्रभाव नेष्ट रहेगा (खराब रहेगा)
धनु राशि को
श्रेष्ठ
मकर राशि को
श्रेष्ठ
कुंभ राशि को
मध्यम अच्छा न खराब
मीन राशि को भी नेष्ट है (खराब है)
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ग्रहण दो प्रकार के होते हैं
सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण
सूर्य ग्रहण एक तरह का बहुत प्रभावी ग्रहण है जब चन्द्रमा, पृथ्वी और सूर्य के मध्य से होकर गुजरता है तथा पृथ्वी से देखने पर सूर्य पूर्ण अथवा आंशिक रूप से चन्द्रमा द्वारा आच्छादित होता है।
चन्द्रमा जब सूर्य को पूर्ण रूप से आच्छादित कर लेता है तो उसे पूर्ण सूर्य ग्रहण कहते हैं जैसा कि 1999 के सूर्य ग्रहण में देखा गया। इसके अन्तिम छोर (लाल रंग में) पर सौर ज्वाला अथवा विस्तृत कॉरोना तन्तु देखे जा सकते हैं।
पूर्ण सूर्य ग्रहण
वलयाकार सूर्य ग्रहणआंशिक सूर्य ग्रहण
वलयाकार सूर्य ग्रहण (बायें) तब दिखाई देता है जब चन्द्रमा सूर्य को पूरी तरह एक साथ नहीं आच्छादित कर पाता। (जैसा= 20 मई 2012 के सूर्य ग्रहण में देखा गया।) आंशिक सूर्य ग्रहण की स्थिति में चन्द्रमा द्वारा सूर्य का कोई एक हिस्सा आवरित किया जाता है (23 अक्टूबर 2014 का सूर्य ग्रहण)।
भौतिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढक जाता है, इसी घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की। कभी-कभी चाँद, सूरज और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है जिससे धरती पर साया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना सदा सर्वदा अमावस्या को ही होती है।[1]
अक्सर चाँद, सूरज के सिर्फ़ कुछ हिस्से को ही ढ़कता है। यह स्थिति खण्ड-ग्रहण कहलाती है। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि चाँद सूरज को पूरी तरह ढँक लेता है, इसे पूर्ण-ग्रहण कहते हैं। पूर्ण-ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ पचास (250) किलोमीटर के सम्पर्क में। इस क्षेत्र के बाहर केवल खंड-ग्रहण दिखाई देता है। पूर्ण-ग्रहण के समय चाँद को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं। चाँद सूरज को पूरी तरह से, ज़्यादा से ज़्यादा, सात मिनट तक ढँकता है। इन कुछ क्षणों के लिए आसमान में अंधेरा हो जाता है, या यूँ कहें कि दिन में रात हो जाती है।[2]
ज्योतिष विज्ञान की दृष्टि से सूर्य ग्रहण
ग्रहण प्रकृ्ति का एक अद्भुत चमत्कार है। ज्योतिष के दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो यह अभूतपूर्व अनोखा, विचित्र ज्योतिष ज्ञान है, जो ग्रह और उपग्रहों की गतिविधियाँ एवं उनका स्वरूप स्पष्ट करता है। सूर्य ग्रहण (सूर्योपराग) तब होता है, जब सूर्य आंशिक अथवा पूर्ण रूप से चन्द्रमा द्वारा आवृ्त (व्यवधान / बाधा) हो जाए। इस प्रकार के ग्रहण के लिए चन्दमा का पृथ्वी और सूर्य के बीच आना आवश्यक है। इससे पृ्थ्वी पर रहने वाले लोगों को सूर्य का आवृ्त भाग नहीं दिखाई देता है।[3]
सूर्यग्रहण होने के लिए निम्न शर्ते पूरी होनी आवश्यक है।
अमावस्या होनी चाहिये
चन्द्रमा का अक्षांश शून्य के निकट होना चाहिए।[4]
उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाने वाली रेखाओं को रेखांश कहा जाता है तथा भूमध्य रेखा के चारो वृ्ताकार में जाने वाली रेखाओं को अंक्षाश के नाम से जाना जाता है। सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। जब चन्द्रमा क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हों। चन्द्र और राहु या केतु के रेखांश बहुत निकट होने चाहिए। चन्द्र का अक्षांश लगभग शून्य होना चाहिये और यह तब होगा जब चन्द्र रविमार्ग पर या रविमार्ग के निकट हों, सूर्य ग्रहण के दिन सूर्य और चन्द्र के कोणीय व्यास एक समान होते हैं। इस कारण चन्द सूर्य को केवल कुछ मिनट तक ही अपनी छाया में ले पाता है। सूर्य ग्रहण के समय जो क्षेत्र ढक जाता है उसे पूर्ण छाया क्षेत्र कहते हैं।[3]
पूर्ण सूर्य ग्रहण की ज्यामिति
चन्द्रमा द्वारा सूर्य के बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढ़के जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।
1. पूर्ण सूर्य ग्रहण
उत्तरी अमरीका से लिया गया पूर्ण सुर्य ग्रहण का दृश्य
पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृ्थ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले ले फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृ्थ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृ्थ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है।
2. आंशिक सूर्य ग्रहण
आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात चन्दमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है।
3. वलयाकार सूर्य ग्रहण
वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात चन्द्र सूर्य को इस प्रकार से ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहलाता है।[9]
खगोल शास्त्रीयों की गणनाएँ
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खगोल शास्त्रियों नें गणित से निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं। किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिए। हाँ, यदि किसी वर्ष 2 ही ग्रहण हुए तो वो दोनो ही सूर्यग्रहण होंगे। यद्यपि वर्षभर में 7 ग्रहण तक सम्भाव्य हैं, तथापि 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुन: होता है। किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं हैं, क्योंकि सम्पात बिन्दु निरन्तर चल रहे हैं।[3]
साधारणतय सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि चन्द्र ग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं। 3 चन्द्रग्रहण पर 4 सूर्यग्रहण का अनुपात आता है। चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के बहुत बड़े भाग में प्राय सौ मील से कम चौड़े और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में दिखलाई पडते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास (जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है) ग्रहण हो तो गुजरात में खण्ड सूर्यग्रहण (जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढँकता है) ही दिखलाई देगा और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा।[10]
वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य
चाहे ग्रहण का कोई आध्यात्मिक महत्त्व हो अथवा न हो किन्तु दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए यह अवसर किसी उत्सव से कम नहीं होता। क्योंकि ग्रहण ही वह समय होता है जब ब्राह्मण्ड में अनेकों विलक्षण एवं अद्भुत घटनाएँ घटित होतीं हैं जिससे कि वैज्ञानिकों को नये नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मण्डल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था।[11]
आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी। चन्द्रग्रहण तो अपने सम्पूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं। संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही सम्भव है। यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाए तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूँजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाए तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी सम्भव हो सकती है।[10]
भारतीय वैदिक काल और सूर्य ग्रहण
वैदिक काल से पूर्व भी खगोलीय संरचना पर आधारित कलैन्डर बनाने की आवश्कता अनुभव की गई। सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण तथा उनकी पुनरावृत्ति की पूर्व सूचना ईसा से चार हजार पूर्व ही उपलब्ध थी। ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि के परिवार के पास यह ज्ञान उपलब्ध था। वेदांग ज्योतिष का महत्त्व हमारे वैदिक पूर्वजों के इस महान ज्ञान को प्रतिविम्बित करता है।[12]
ग्रह नक्षत्रों की दुनिया की यह घटना भारतीय मनीषियों को अत्यन्त प्राचीन काल से ज्ञात रही है। चिर प्राचीन काल में महर्षियों नें गणना कर दी थी। इस पर धार्मिक, वैदिक, वैचारिक, वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण के ज्ञान को देने वाले प्रथम आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाश काल अर्थात वैदिक काल से ग्रहण पर अध्ययन, मनन और परीक्षण होते चले आए हैं।[6]
सूर्य ग्रहण के समय हमारे ऋषि-मुनियों के कथन
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हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में आंखों से ना दिखाई दिये जाने वाले कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। या अयोग्य की सूर्य ऊर्जा की कमी हो जाती है इसलिये ऋषियों ने खाद्य पदार्थों देव पूजा पाठ की स्थलों के पेय पात्रों में कुश डालने को कहा है, ग्रहण काल को ही रावत व केतु का दर्शन माना जाता है राहु दर्शने सूतकं भवति पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है। क्योंकि बहुत कुछ अशुभ प्रभाव पड़ता है ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अन्दर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जायें और धुल कर बह जायें।
पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चन्द्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की सन्तान हैं। चन्द्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चन्द्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चन्द्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।
ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिये। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्मण को दान देने का विधान कहते है शास्त्र अवलोकन से जितना मुझे ज्ञात है उसके अनुसार तो ब्राह्मण को न देकर शूद्र को दिया जाता है। ग्रहण काल में पहनने गई वस्तुओं का दान और अन्य का दान देना चाहिये ।ग्रहण काल में डोम को दान देने का अधिक माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।
*ग्रहण के उपरान्त*
ग्रहण बीत जाने पर
कहीं-कहीं वस्त्र पक्षालन, बर्तन धोने का भी नियम है। पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर जल पिया जाता है। जिन खाद्य और पेय पदार्थों ग्रहण काल से पूर्व को सा डाल दी जाती है वे पदार्थ ग्रहण के उपरांत भोज योग्य होते हैं भोज्य पदार्थों और पेय पदार्थों में उषा ही डालने का विधान है कुछ लोग तुलसी डालने को कहते हैं उसका (तुलसी का) कहीं कोई प्रमाण नहीं है
सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये। बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना - ये सब कार्य वर्जित हैं। ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए। ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमन्दों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। 'देवी भागवत' में आता है कि भूकम्प एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये।
शेष श्रीमन् नारायण नारायण......
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